Last modified on 12 नवम्बर 2014, at 19:32

घर पहुँचकर / ‘हामिदी’ काश्मीरी

थक गई चलते-चलते पठारों पर
झुलसा दिया आषाढ़ की धूप ने
अंग-अंग
हाँफती थकी साँसों का दीपक बुझ गया

बन गए हैं लौह पर्वत जैसे ये पठार
मुँह फेरे धुआँआर गुफाएँ और खाइयाँ

आती है याद
अभी दिन हुए ही कितने
ये-ये पठार मेरा आँगन
बचपन के दिन
करते थे उछल-कुद
खेतों में समेट कर शरद की फ़सल
घर जाने की तैयारी कर के
हो गई है बावरी/पठारों पर फैली चाँदनी
हिरण की कुलाँचे भरकर
चूमा तुम्हारी परछाइयों को
किए प्राण न्योछावर
हर्ष से खिल उठे हैं केसर के फूल
कोमल पलकों पर हैं
सपनों के चमकते हुए
तारों की किरणें
सँभालते हुए तुम्हारे ठहाके
विलीन हुए तारे नभ के धुँधलके में

थक गई
चलते-चलते पठारों पर
पर जाऊँ/शायद घर पहुँचने से पहले
आँख खुली तो
हाय!
रह गये पठार पीछे
किसी ने की फुसफुसी
लगी चंद्रपक्ष में
केसर के फूलों के
खिलने की सरसराहट

देखो तो !
घर पहुँच गए
आदिकाल से हूँ मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में
राह निहारते थक गए नैन
फिर जाग उठी चेतना
मृत काया में
घर में खिलते चेहरों ने
किया आलिंगन
अश्रुधाराएँ बही लुप्त हुआ प्रेम
क्या !

आँखें मसली
शून्य ही शून्य
भटका शायद
गुम हुुआ मैं
निर्जन था हर ओर
शून्य ही शून्य
कहीं न कोई मानव
न पशु, न पक्षी न ही छाया
दुकानदार दुकानें अधखुली छोड़कर
भाग गए थे।
घर-घर छाई थी
मौत की ख़ामोशी
दीवारों पर लगे थे जाले मकड़ों के
सुनहरी धूल ने आ घेरा
ख़ुले पडे़ थे खिड़कियाँ और द्वार
चीत्कार ही चीत्कार
कहाँ चले गए यहाँ के बसने वाले
किससे पूछूँ
क्या बन आई है उन पर
किसे ढूँढूँ सुनेगा कौन?