दिवस भर के कड़े श्रम से चूर ,
सांझ को घर लौटता मजदूर ;
याद कर निज झोंपड़ी ,
याद कर निज झोंपड़ी की प्रीति वह भरपूर ;
बाँध रखा उसे जिसने ,
लौटता मजदूर १
क्षुधा , चिंता , दीनता , व क्लेश
खा गये इसका यौवन नोचकर
रह गया है शेष ,
एकमात्र अध - खड़ा ध्वंसावशेष ।
क्षुब्ध शोषण तो
इक हथौड़ा है ,
रात - दिन पड़ते प्रहारों ने
इसे तोड़ा है ।
अपने सुख के भव्य महल का
इसकी इच्छाओं पर करके निर्माण
मिल - मालिक भगवान् जी रहा है ।
निर्बल के खून - पसीने को
बलवान पी रहा है ।
नादान ही रहा है ,
अपने ही भाई पर देखो ,
इंसान जी रहा है ।
घर पहुँच
खोल दरवाजा निज आँगन में
रुका वह खंखार कर अपना गला
लिपट टांगों से गये आ भाग दो बच्चे ;
चहक जीवन से उठा फिर घोंसला
छोड़ घर का काज भीतर से
सने- हाथों भागकर आई ,
सादगी की इक झलक
गृह - स्वामिनी १
और फिर
भुज , भुजाओं में फंसे
बात कर दोनों हंसे ,
हंसी लहरी में धंसी गहरी
मालिक की बड़- बड़ ;
वह मिल की खड़- खड़ ।।
(अग्निजा ,१९७८)