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घर से दूर / हरीश करमचंदाणी

इस बात पर हुए हम बहुत उदास
नहीं जा पाएंगे घर इस बार
गोकि याद बहुत सताती हैं
घर परिवार दोस्त यार ही नहीं
वह खिड़की भी बहुत याद आती है
जिससे होकर रोशनी मेरपासआती थी
वह खिड़की जब बंद होती थी
रोशनी कहीं और होती थी
मैं जब खोलता था खिड़की धीरे धीरे
लपक रोशनी दोडी आती थी
मेले में बिछड़े किसी अपने की तरह
बिछड़े हुए अपने मिलने पर
और भी अपने लगते हैं
सच कहूं तो
खिड़की से आती रोशनी में
जो अपने नहीं
वो भी अपने लगते हैं
सोचता हूँ
किसी दिन
वह खिड़की मैं यहीं ले आऊं