यहाँ आकर मैंने देखा
जितनी ऊँचाई पर
देखता था ख़ुद को
उतनी निचाई पर पाँव जमे हैं
और जहाँ खड़ा हूँ
वहाँ घुप्प अन्धेरा है
भूख से ऐंठती हैं अन्तड़ियाँ
और लोग देख नहीं पाते
जिस आशा और विश्वास से
आया था यहाँ
वह कहाँ
पूरा हुआ
सिर्फ़ छाया रहा
चारों ओर धुआँ
मुझे यह जगह
न जाने कितनी बार
नगाड़ा बजाकर
मेरी परेशानियों पर हँसती हुई लगी
किसी तरह
गिरते-पड़ते-सम्भलते
मैं हुआ वह
जो होना था अन्ततः
फिर लौट आया घर