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घसियारिनें / महेश चंद्र पुनेठा

ऐसे मौसम में
जब दूर-दूर तक भी
दिखाई न देता हो तिनका
हरी घास का ।

जब कमर में खोंसी दराती पूछती हो
मेरी धार कैसे भर सकेगी
तुम्हारी पीठ पर लदा डोका

बावजूद इसके एक आस लिए निकल पड़ती है घर से वे
इधर -उधर भटकती हैं
झाड़ी -झाड़ी तलाशती हैं
खेत और बाड़ी-बाड़ी

अनावृष्टि चाहे जितना सुखा दे जंगल
उनकी आँखों का हरापन नहीं सुखा सकती
आकाश में होगा तो वहाँ से लाएगी
पाताल में होगा तो वहाँ से
वे अंततः हरी घास लाती लौट रही हैं घर
जैसे उनके देखने भर से उग आई हो घास

उनकी पीठ पर हरियाली से भरा डोका
किसिम-किसिम की हरियाली का एक गुलदस्ता है ।