आँखें बिछाये
प्रतीक्षातुर हो रही घाटी
घुटती उसाँसें-
ठिठकता आ रहा बादल
उमग कर लिपट जाता
भींच लेता है
समर्पित शिथिल होते अंग
कभी खुलती, कभी शर्माती
घाटी हरी होती है।
(1980)
आँखें बिछाये
प्रतीक्षातुर हो रही घाटी
घुटती उसाँसें-
ठिठकता आ रहा बादल
उमग कर लिपट जाता
भींच लेता है
समर्पित शिथिल होते अंग
कभी खुलती, कभी शर्माती
घाटी हरी होती है।
(1980)