ऐसे मत छुओ घाव को
घाव को पहले मन में बसाओ
उतारो धीरे-धीरे हाथों में
उंगलियों तक ले आओ धीरे-धीरे
छुओ, फिर छुओ घाव को घाव की तरह
आँखों से कहाँ दिखता है घाव
अनुभव में होता है वह
शब्द की तरह कविता में आने से पहले
कविता में शब्द की राह से आते अनुभव की तरह
घाव में उतरो
ऐसे मत छुओ घाव को
तीमारदार स्थितियों
तुम्हारी मुस्कान कहाँ चली गई
कहाँ चला गया तुम्हारा संस्पर्श
कहाँ गया वह बोध
तुम्हे संस्पर्श में जन्मता है जो
घाव को छूने से पहले उसे वापस लाओ
ऐसे मत छुओ
कि घाव है आखिर
रचनाकाल : 1991 विदिशा
शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।