मैं उग आती हूँ
दीवारों के कोनों पर
जहाँ वे जुड़ती हैं
वहाँ जहाँ वे मिलती हैं
वहाँ जहाँ वे धनुषाकार होती हैं
वहाँ मैं रोप देती हूँ
एक अन्धा बीज
हवा में बिखराया हुआ
धीरज से फैल जाती हूँ
ख़ामोशी की दरारों में
मैं प्रतीक्षा करती हूँ
दीवारों के धराशायी होने
और धरती पर लौटने की
तब मैं ढाँप लूँगी
नाम और चेहरे ।