बिल्ली आई
एक कलूटी,
छींके ऊपर
देखी मटकी।
कूदी, लपकी
उछली, लटकी,
यहाँ चढ़ी
वहाँ से टपकी।
ऊपर नीचे
उलझी-अटकी,
मगर मिली ना
घी की मटकी।
अम्माँ की फिर
टूटी झपकी,
गई बेचारी
मारी डपटी।
पछताती फिर
भागी सटकी,
भाग्य कहाँ जो
छींका टूटे,
या फिर फूटे-
घी की मटकी!