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घुसपैठ / राजीव रंजन

मैं मुस्कुरायी थी कुछ सोचकर,
तुमने सोचा, मैं मुस्कुरायी तुम्हें देखकर।
फिर क्या था, तुम रोज मिलते मेरी
राहों में, अपनी नजरों से अवांछित
घुसपैठ करते हुए।
तुम्हारी नजरों के बलात्कार से
आहत, नुचे मन को समेट कर
मैं रोज नजरें झुकाकर निकल
जाती, फूलों भरी राह की चाह में,
हसीन ख्वाबों की दुनिया को
इस धरातल पर उतारने की
उत्कट अभिलाशा की पूर्ति के लिए।
लेकिन एक दिन तुम्हारी
वह नजर जबरन घुसपैठ
में कामयाब होती है, दहशदगर्दी
के साथ मेरी जिंदगी के हर
पल में, साँसों के हर उच्छ्वास में,
टूटे ख्वाबों के हर जर्रे में,
फूल से शूल बन चुभते
एवं लहूलुहान करते जिंदगी
के मेरे हरेक कदम में,
जब तुम्हारी तेजाबी नजर
तेजाब की बोतल बन एक
दिन टकराती है मेरे चेहरे से।