हल्के से घूँघट में गुड़िया
लगती जैसे एक परी हो,
जो अपनी सखियों से मिलने
सुन्दर धरती पर उतरी हो।
देख रही अचरज से, दुनिया का
यह आँगन रंग-रँगीला,
सुनती है चिड़ियों का कलरव
कोयल का संगीत सुरीला।
यहीं बह रहीं कल-कल नदियाँ
ऊँचे पर्वत यहीं खड़े हैं,
अपने हाथों से, मेहनत से
मानव ने क्या रूप गढ़े हैं!
यहीं सजे हैं, बाग़-बग़ीचे
हरियाली के कपड़े पहने,
स्वर्ग बहुत प्यारा है लेकिन
धरती के सचमुच क्या कहने!