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घैरको (कविता) / भुवनेश्वर सिंह भुवन

धूरा भरला डहरॅ पर बालू के चक-मक,
बैलगाड़ी के चर-मर, घाँटी के ढन-मन,
घंटी के टुन-टुन, टन-टन।
बुढ़बा पिपरॅ के छहार,
गर्मी के धायॅ में भीजै फुहार,
कुनमुन-कुन गाछी पर पंछी,
नीचा में बंशी फूँकै दिन पर सौंतार,
गामॅ के बच्चा, जेना करका माँटी कच्चा,
घूरा नहैलॅ देह, धरती के कण-कण सें नेह,
आँख में झील।
छलमल मछली; या सरंगॅ में चील,
बालू के राजा, मनॅ के महाराजा,
हाथॅ के विश्वकर्मा,
ढहरॅ किनारा पर बनबै छै घैरकों।
चारो तरफें पथरॅ के बड़का देवार,
जहाँ-तहाँ खिड़की झलकै आर-पार,
आगूँ देवारी के पानी के खन्ता,
जहाँ तहाँ गाछी में भौरी के छुत्ता,
भितरें देवालीे के सब तरफें फौज
एक कोना में जेट, दोसरा में रॉकेट।
क्रीड़ा-भवनॅ में - चानी के ईंटॅ, तामा के गारा,
लोहा के बाँस-बत्ती, सोना के खपड़ा,
गजदन्ता के खटिया, कमल-बिछौना,
हीरा के लटकन, मोती के पलना।
सगरे जरै मणिदीप,
लछमी बोहारी जाय भीत,
सरोसतीं गाबै मधुगीत,
जेकरा सुनथैं उपजै प्रीत,
पार्वती पानी दै, शंकर रखबारी,
स्वयं इन्द्र सजबै छै नन्दन फुलवारी।
पटना के पान चढ़ी ऐलै कनियाँय,
मेहदी रं तलबा सें मक्खन लजाय,
जगमग-जग जोत जरै,
झलमल-झल चुनरी,
झन-झन झन पायल के-
कण-कण-कण मुनरी,
कसमसबै पुरबा, बरसै रसधार
अंगड़ाबै कामदेव, सिहरै रतिनार।
गड़गड़ाबै मेघ, छहरै आकाश,
ठनका के भैंसा के बिजली के रास,
कान सें ऐलै ऊ, गेलै कोन पार,
की भेलै हमरॅ संसार?
कानै छै, हकरै लै, धरती पर लोटै छै,
घिन पुछ लें केकरहौ सें, बालू में खोजै छै,
कनियॉय के भोथरा भर, बरॅ के पालकी,
चूर-चूर कुहरै कहारॅ के पालकी।
-भरी पेट कानी केॅ सुती गेलै बुतरू,
एक हाथें बालू छै, दोसरा में तुतरु।
माथाँ बोझॅ लेलें अति आतुर माय,
चिलका केॅ लेॅ चललै छातीं लगाय,
सुतला में बड़बड़ाये ललना बदहोश,
”काल्ह देबै खीर-पुड़ी ठनका केॅ भोज“
एतन्हौ प-
घैरको बनबे करतै, बीहा होबे करतै,
उनका ऐबे करतै, दुनियाँ रहबे करतै।