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घोटुल / संजीव बख़्शी

गाँव से दूर, सड़क से दूर
लेका, लेकी के नाम एक खोली, एक आँगन
वह सिर्फ खोली या आँगन नहीं
लेका, लेकी के उम्र बढ़ने की ख़बर है यह
ख़बर दरवाज़े, खिड़कियाँ, छप्पर से युक्त
मांदर, तोड़ी, गोड़ांदी के साथ
यह ख़बर धीरे से आती है गाँव से बाहर
घोटुल बन जाती है

गाँव भर की मोटियारिनें घोटुल को लीपती हैं
लीपती हैं अपने भविष्य, अपने सपनें
गाती हैं रीलो, रेला, हुलकी, लीपते, लीपते
फिर सजती हैं मोटियारिनें
सँवारती हैं घोटुल को
सजते हैं मांदर, बजते हैं ढोल
नाच उठते हैं सब साथ-साथ
काकसार, कोकरेंग पहर बाद, रात भर
यह दूर की आवाज़ है
मांदर की थाप है
मीलों तक जानते हैं, गाँव-भर ख़बर है
यह घोटुल का मांदर है, यह घोटुल का शोर है

झाँकता है चाँद कभी पहाड़ की ओट से
कभी खेलता है पेड़ों से आँख-मिचौली
उतर आता है आख़िर वह घोटुल के आँगन
चंदन से भर देता घोटुल को, आँगन को
तब का घोटुल था चंदेनी का घोटुल
तब था घोटुल एक जश्न का नाम
आज घोटुल एक प्रश्न का नाम है

तब की बात और है,
तब का मांदर, तब का ढोल
तब की मोटियारिनें,
तब की उमंगे
अब
जब जाती हैं मोटियारिनें हाट
जाते-जाते क्षण भर रुकती हैं
घोटुल के पास
रूकती हैं, ताकती हैं घोटुल के बंद दरवाज़े को
उठाती हैं पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े
दरवाज़े पर मारती हैं
नहीं खुलता बंद दरवाज़ा
खट की आवाज़ आती है
जिसे सुनती हैं मोटियारिनें
एक साथ खिलखिलाकर हँसती हैं
और हाट चल देती है