चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार
गई
टेढ़े चाल-चलन के
उस पर थे इलज़ाम लगे
गति में उसकी
थी जो बिजली
उसके दाम लगे
पत्थर के आगे मिन्नत सब
हो बेकार गई
टूटी लहरें
छूटी कल-कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर पर्तों में बदली
सदा स्वस्थ रहने वाली
होकर बीमार
गई
अपनी राहें ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से पूछ रही है
रुक जाए?
बह ले?
आजीवन फिर उसी राह से
हो लाचार
गई