चंदा मामा दूर के!
तोड़ रहे हैं छत पर चढ़कर
पत्ते बड़े खजूर के!
चंदा मामा दूर के!
नीले-नीले आसमान में
दिया जले जैसे मकान में
बैठ गए हैं सई साँझ से
रंग लिए अमचूर के
चंदा मामा दूर के!
सीढ़ी-सढ़ी चढ़ते जाते
धीरे-धीरे बढ़ते जाते
इतने बढ़ जाते हैं जैसे
फुलके हो तंदूर के
चंदा मामा दूर के!
कभी दिखें नाखून बराबर
कभी दिखें फूटी-सी गागर
कभी-कभी हफ्तों छिप जाते,
मारे किसी गरूर के
चंदा मामा दूर के!
-साभार: नंदन, दिसंबर, 1972