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चंद्रमा पर घूमकर / सोम ठाकुर

रश्मीरंगी चंद्रमा पर घूम कर
रूपगंधा आँधियों को चूमकर
हम गये जिस देश
उसमे आग की नादिया बही

ध्वंस-क्षण में कुछ अजब अनुबंध ये हमने किया
शूल के वातावरण में फूल सा जीवन जिया
हाथ में गंगाजली -सी लेखनी लेकर सदा
कौल भरकर बात जो हमने कही सच-सच कही

क्या करे, कुछ भाग्य रेखा इस तरह टूट पड़ी
बाँसुरी ने आँसुओं की भीख माँगी हर घड़ी
दे दिया वरदान ऐसा नील कांति प्यास ने जो
सरफिरे इस वक्त की हर चोट हँस -हँस कर सही

एक अरुणा दृष्टि ने कुछ इस तरह हमको निहारा
जो हमारी मुक्त बाँहों में बँधा संसार सारा
द्वार अपना बंद कर पाए न शरणागत प्रहर में
पास आकर हर पराई पीर अपनी हो रही है