कुछ नहीं है इस तरह
कि हवाओं की रिक्तता में
उछाले गए शब्द
मिले तुम्हें
अपनी जगह पर
यहां न रक़्त लगातार है
न मौसम बदलने वाले पेड़
जब किसी तरह की सफल केमेस्ट्री बनाकर
कहा जाता है-
“ आल इज़ वेल”
मैं नहीं जानता ऐसी रोशनी को
जो गिरती हैं
चंद तरह के आसमान पर
जहां बादल छँटने के बाद
कुछ साफ़ नहीं होता
जो साफ़ है वह घिर जाता है पुनः
बातें केवल संकेत भर हैं
और कुछ नहीं
उनके साथ या उनके ख़िलाफ़
हम तैयार करते हैं
एक विकल्प अपनी भूमिका के लिए
मैं फिर दोहराता हूं
“ आल इज़ वेल ”?
जबकि गयी रात कत्ल के बाद
फ़र्श धोयी जा रही है
बातों और इशारों का दौर जारी हैं
नहीं है तो वह चीख़ और ख़ामोशी
जो कि ज़ब्त कर ली गयी है
दीवारों की ओट में