Last modified on 23 जून 2017, at 20:01

चक्रव्यूह / मनोज चौहान

ठिठुरती ठण्ड में
बंद दरवाजों और खिड़कियों के
चक्रव्यूह को भेदकर
क्वार्टर की चारदीवारी के भीतर
न जाने कहाँ से आ गई थी
वह नन्ही चिड़िया।

छुपती वह पर्दों के पीछे
कभी भरती उड़ान
एक कमरे से दुसरे तक
बैठ जाती
छत के मध्य लगे
पंखे की पंखुड़ियों पर
मैं खोता गया स्मृतियों की
अंतहीन सुरंग में।

गाँव के बचपन से
मरहूम रही बेटी
चहचहा उठी थी
उसे देखकर
यह घटनाक्रम
नया था उसके लिए।

नन्ही चिड़िया थी
ठीक वैसी ही
जिसे पुश्तैनी घर के आंगन में
देखा करता था अक्सर
फुदकते हुए
और आजमाता था उपाय
उसे धर – दबोचने के
चिड़िया ले आई थी अपने साथ
वो पल भी
मेरे बचपन के।

अठखेलियाँ करती
मानो तलाश रही थी संभावनाएं
निकास की
उसकी कशमकश में
महसूस हुई मुझे
एक अकुलाहट भी।
  
मैंने खोल दिए सभी
खिड़की-दरवाजे
ताकि लौट सके वह
पुनः अपनी दुनिया में।

अंततः उसने पा ही लिया रास्ता
बाहर लौटने का
नन्हें पंखों को फड़फड़ाकर
वह निकल पड़ी विचरने
असीम नभ में।

मैं भी करने लगा जतन
ताकि भेद सकूं
स्मृतियों के अथाह
चक्रव्यूह को!