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चक्र / शशि सहगल

हाँ मैं ही हूँ
जिसे महानगर की विभीषिका ने
खण्ड खण्ड कर दिया है
घर और के बाहर
मैं जीती हूँ टुकड़ों में बंट कर
गीता में पढ़ा था
आत्मा अजस्र है, अखण्ड है
पर मेरा एक टुकड़ा
कई टुकड़ों में बंट कर बिखर जाता है
एक को पकड़ने में
दूसरा वाला छूट जाता है।
मेरे दोनों विभक्त भागों में
लगातार चलता रहता है युद्ध
हर नया दिन
समझौते का आश्वासन देता
निकलता जाता है यूँ ही।