चटाई फ़र्श पर बिछी थी
कई दिनों से मैं परेशान-हाल
भूल गई थी मोड़ कर दीवार के सहारे खड़ा करना
चटाई पर बिखरी पड़ी थीं क़िताबें
आधी-अधूरी कविताओं के पन्ने
हवा में फड़फड़ा रहे थे
चटाई भर बचा था मेरी आँखों का आकाश
उसके सितारे टूट कर आ गिरे थे
अपना रंग बदल कर इन पन्नों पर
फड़फड़ाते कागज़ की छाती से
चिपके थे अक्षर
नवजात साँवले बच्चों की तरह
कई बार मुझे ख़याल आता है
एक चटाई की तरह नहीं है हमारा जीवन
क़ायदे से बुना गया
हिसाब से लचीला बनाया गया
जब चाहे ज़मीन पर बिछा दो
कहीं छत पर बिछा दो
जब चाहे समेट कर आलमारी के पीछे टिका दो
मैं जानती हूँ चटाई को कविता में जगह देना
चटाई भर जगह पाना नहीं
उसके ख़ामोश इतिहास में शरीक होना है