सावन की पहली बयार का झोंका है या गंध तुम्हारी
मेरे तप्त हृदय पर आकर चन्दन लेप लगाया किसने
खुले हुए अम्बर के नीचे जलती हुई धूप आषाढ़ी
धैर्य वॄक्ष पर रह रह गिरती, अकुलाहट की एक कुल्हाड़ी
स्वेद धार को धागा करके, झुलसे तन को बना चदरिया
विरह-ताप की, कलाकार ने रह रह कर इक बूटी काढ़ी
पर जो मिली सांत्वना यह इक प्यार भरी थपकी बन बन कर
मैं रह गया सोचता मुझ पर यह उपहार लुटाया किसने
टूटी शपथों की धधकी थी दग्ध हृदय में भीषण ज्वाला
और उपेक्षाओं ने आहुति भर भरकर घी उसमे डाला
विष के बाण मंत्र का ओढ़े हुए आवरण चुभे हुए थे
घेरे था अस्तित्व समूचा, बढ़ता हुआ धुंआसा काला
सुर सरिता सिंचित किरणों से ज्ञान-प्रीत का दीप जला कर
मन पर छाई गहन तमस को आकर आज हटाया किसने
गूँज रहा था इन गलियों में केवल सन्नाटे का ही स्वर
अट्टहास करता फिरता था, पतझड़ का आक्रोश हो निडर
फटी विवाई वाली एड़ी जैसी चटकी तृषित धरा पर
पल पल दंश लगाता रहता था अभाव का काला विषधर
थे मॄतप्राय ,सभी संज्ञा के चेतन के पल व अवचेतन
सुधा पिला कर फिर जीने का नव संकल्प सजाया किसने