फूले मटरा के म्याड़न पर, हम जोलिन ते ठलुहायि<ref>दिल्लगी</ref> करति
निःचिंत जुवानि जगी नस-नस, जागे मन-हे-मन खिलति
वह चटकि चमारिन च्वाट<ref>चोट</ref> करयि, कच ढिल्लन<ref>ऊँची-नीची धरती के एक टुकड़े विशेष का नाम</ref> पर डिंगारू<ref>बड़ी वाली सुर्ख बर्र</ref> अयिसि-
सतजुग वाली।
वुयि साँची-सूधी बातयि वहि की, आपुइ रूपु बनयिं कविता-
जस उवति सुर्ज्ज-किरनन की कॉबी<ref>किरणें, कंघी के दाँत</ref> हिरदउॅ भीतर घुसि जायि,
बेजा दबावु पर तिलमिलायि का नागिनि असि फनु काढ़ि देयि;
को चितयि सकयि?
दुनिया के पाप-पुण्य की कयिंची का वुहिका का कतरिसि-ब्यउँतिसि<ref>कतर-ब्यौतं करना, काटना-छाँटना</ref>?
‘तुइ अस न हँसे,’ ‘तुइ वसयि रहे’ मुरही बातन के तीख तीर;
अपने साथी बिरवा पर मानउ लता अयिसि लपिटायि रही-
तन ते - मन ते।
‘मइँ तुहि ते, तब तुई महिते हयि,’ जिहि के चमार का एकु कौल<ref>प्रण, निश्चय </ref>
दूनउ वारन के खुले क्यॅवाँरन की पियार की क्वठरी मा,
अंतरजामी बनि, आँखी मँूदे, लुकी - लुकउवरि <ref>लुका-छिपी का खेल विशेष</ref> खेलि रहे,
को छुइ पावयि ?
ब्यल्हरातयि आवा, हँसतयि पूछिसि, ‘के री, रोटी कहाँ धरी ?’
‘‘रूखी-सूखी, सिकहर<ref>जानवर आदि से खाद्य-पदार्थ सुरक्षित रखने का स्थान विशेष</ref> मोरे छइला, मोरे साजन।’’
कहि आँखिन पर बइठारि लिहिस, धनु धूरि भवा, युहु धरमु देखि,
समुझवु कोई?