पेखि जेठ प्रचण्ड ज्वाला परम क्लेशक आगरी
त्यागि गेला तीर्थ ठेला धरहि बैसू नागरी।
बैसि न व्यर्थ बिताविय,
चरखा चारु चलाविय,
देखि देश दरिद्रता नभ घुमरि घुमि घन मालिका
कानि अश्रु अषाढ़ टारथि वसन बिनु लखि बालिका।
सूत सुभग तनु काटिय
विरचि वसन तन धारिय
मास सावन करथु हा! हर विकल बेंस विदेशिया
अहाँ मन दय पीर बाँटू सूत काटू देशिया।
देशक सब धन बाँचत,
अरि डर थरथर काँपत,
छाड़ि चिन्ता, करू भादव भवन बैसि विभावरी
बारि बाती धरू चरखा करु वरखा आखरी
मधुप विपति सब बीतत
देश कठिन रण जीतत।