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चरनदास की डायरी / कुमार कृष्ण

मेरे उठने से पहले
दरवाजे से पसर आती हैं
सड़कें
गलियाँ
लोकतन्त्रीय तस्वीरें
मैं सबसे पहले प्रवेश करता हूँ
आदमी के कत्ल की कहानियों में
मौत का भय
अवसरवादिता के बहुत करीब होता है
मैं अपने दोनों हाथों से
अखबार की शक्ल में
पूरा देश थामता हूँ।

एकाएक छूट जाती हैं
सड़कें
गलियाँ
मैं सीमा-विवाद की साजिशों से निकलकर
चला आता हूँ
चारदीवारी से बाहर
शामिल करता हूँ खुद को
पानी के नल की लम्बी कतार में।

ऐसे ही कटती होगी दुनिया
ऐसे ही बढ़ते होंगे सीमा-विवाद
ऐसे ही होते होंगे शक्ति-परीक्षण
कोई भी हरकत
कर सकता है आदमी
नल तक पहुँचने के लिए
बाल्टियाँ मौके की तलाश में
निकल आई हैं
अपने-अपने घरों से बाहर
पूरी तरह नंगी होकर।

अपने मतलब के लिए
खुद को नंगे होकर बेचना
शायद निहायत ज़रूरी है
नल तक पहुँचा हुआ
हर आदमी
विजयी योद्धा की तरह लौटता है
यहीं से आरम्भ होती है
आदमी के टूटने की शुरुआत।

बुझे हुए कोयले
नहीं कर सकते गर्म
तीसरी बार लोहा
चुभती हैं ठण्डी रोटियाँ
गेहूँ की बालियों की तरह
नल का पानी
शरीर को टुकड़ों में बाँटकर
पहुँचता है अन्दर-से-अन्दर
जैसे बर्फ की पर्त को
चीरती है बारिश
मैं दर्जनों टुकड़ों में कटा हुआ
खुद को
आईने के हवाले करता हूँ।

आईने में बोलती हैं आँखें
तुम अभी जिन्दा हो
इसीलिए मेरे सामने खड़े हो।

तुम कई चेहरों में बँटे हुए
मेरे सामने
जब भी मुस्कुराते हो
फटी हुई कॉलर
पसीने के नमक पर बात करने लगती है।
यह पसीने के नमक पर
बात करने का वक्त नहीं
कोयले की दुकान तक
जाने का वक़्त है।

तुम नहीं जानते
पसीने का नमक
कमीज के अन्दर
उसी तरह प्रवेश करता है
जैसे माँ के दूध से शरीर में
प्रवेश करती है व्यवस्था

चुपचाप
बिना किसी शोर के।
आईने के सच
और कविता के सच में
शायद कोई फर्क नहीं
फिर भी देश के अधिकतर चेहरे
सिनेमाघर की ओर जा रहे हैं।

आईने की गिरफ़्त से छूटकर
मैं अपने पैरों को
रख देता हूँ सड़क पर
सड़कें
हर वक़्त होती हैं हरकत मे एक दूसरी को काटती हुईं
एक-दूसरी के पीछे
घरों, गलियों, आदमी को
अन्दर तक सूँघती हैं सड़कें।

पूरी तरह सड़क पर होना
देश की हरकतों के बीच होना है
एक आदमी दूसरे का जूता पहनकर
कितनी देर खुश हो सकता है
कोई नहीं कर सकता इस पर
सड़क से बेहतर बात।

आदमी को डंगरों की तरह हाँकने के लिए
यह सबसे सही जगह है
इसके बीच से पूरी तरह गुजरना
जोखिम का काम है
हम कोई भी जोखिम
आसानी से नहीं चुनते।
मैं तैयार करता हूँ खुद को
बीच से गुजरने के लिए
उसी वक़्त लगती है जलने
मेरे सामने चूल्हे की तरह
एक आँख
मैं बिना किसी हरकत के
दफ्तर के दरवाजे लाँघता हूँ।
यह वही जगह है जहाँ हम
रीढ़ की हड्डी को पूरी तरह से
कुर्सी के हवाले करते हैं
चार टाँगों पर दौड़ने लगता है
फाइलों का सच
कविता को
ऐसी जगहों पर ही होना चाहिए
जहाँ साफ-साफ देख सके वह
खूबसूरत मेजों की हरकतें।

यह वही जगह है जहाँ
धीरे-धीरे मरता है आदमी
धीरे-धीरे काठ होता है देश
हम आठ घण्टे की गिरफ्त के बाद
गली में लौटकर
आज़ादी के जश्न पर नाचने लगते हैं
इस जगह
एक आदमी को दूसरे आदमी की कमीज
ज्यादा फटी नजर आती है।

फिर भी वे कॉलर की जगह
जेब की बात करते हैं।
जेब-से-जेब तक की यात्रा
चलती है दिन-रात
तुम चाहो तो इसे यों भी कह सकते हो
दुनिया घूम रही है।
दुनिया घूमती है तो घूमने दो
यह दफ्तर से लौटने का वक़्त है
कुर्सी की गिरफ्त से
बाहर निकलने का वक़्त
सूरज पके हुए फल की तरह गिर रहा है
कुछ लोगों के लिए यह
पेड़ों की तस्वीरें उतारने का
सही वक़्त है
वे नहीं समझते
दफ्तर से छूटा हुआ आदमी
बनिये के सामने खड़ा होता है
या बच्चों के जूतों के आगे
वह लम्बी कतारों में खड़ा
अगली पीठ के हिलने का इन्तजार करता है।