छुप-छुप कर
रोना मत
ओ रे कन्दील !
पिघलेगी
दुख की यह जमी हुई झील !
माना, तू टूटा,
ज्यों काँच का गिलास ।
ओढ़े रह, लेकिन,
यह गन्ध का लिबास ।
विभ्रम कोलाहल का
हो जाएगा हलका
टूटेगी, जबड़ों पर लगी हुई सील !
पिघलेगी, दुख की यह जमी हुई झील !
अपना हर साक्षी क्षण
क्यों रहा झँझोड़ ।
कुण्ठा की भरी हुई
गगरी यह फोड़ ।
महरावें हिलने दे
पीठ और छिलने दे
उतरेगी धरती पर, उड़ी हुई चील !
पिघलेगी, दुख की यह जमी हुई झील !
रो मत, जो मेंड़ों ने
चर डाले खेत !
सोना तो गल-गल कर
बनता ही रेत ।
सँकरे ये गलियारे
चलता-चल बंजारे
उबरेगी, माथे में गड़ी हुई कील !
पिघलेगी, दुख की यह जमी हुई झील !
1969