Last modified on 17 फ़रवरी 2017, at 12:47

चलती छाया कोई / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

चलती छाया कोई मेरे आगे आगे,
जाड़े का दिन जैसे-
जल्दी-जल्दी भागे।

देखे होता कोई आतुर अभिसारों को,
मेरी सीमाओं औ छबि के विस्तारों को;
बीहड़ जंगल में ज्यों पगडंडी का खोना,
भारी मेले में ज्यों बालक का गुम होना;
राहें धुधली-नीली
चाहें गीली-गीली
चितवन खोयी-खोयी-
लोचन जागे-जागे।

ओझल आकृतियों को वह मेरा गुहराना,
मेरी आवाजों का घाटी में घहराना;
डरी हुई ध्वनियों का मुझ तक वापस आना,
कंकड़मारी थाली का जैसे थर्राना;
मेरी बेचैनी को
कोई क्या समझेगा
कब तक यह मन दौड़े-
तन को टाँगे-टाँगे।