Last modified on 15 जुलाई 2014, at 23:06

चलती रही तुम / बुद्धिनाथ मिश्र

मैं अकेला था कहाँ अपने सफ़र में
साथ मेरे, छाँह बन चलती रही तुम ।

तुम कि जैसे चाँदनी हो चन्द्रमा में
आब मोती में, प्रणय आराधना में
चाहता है कौन मंज़िल तक पहुँचना
जब मिले आनन्द पथ की साधना में ।

जन्म-जन्मों मैं जला एकान्त घर में
और बाहर मौन बन जलती रही तुम।

मैं चला था पर्वतों के पार जाने
चेतना के बीज धरती पर उगाने
छू गये लेकिन मुझे हर बार गहरे
मील के पत्थर विदा देते अजाने ।

मैं दिया बनकर तमस से लड़ रहा था।
ताप में, बन हिमशिला, गलती रही तुम ।

रह नहीं पाए कभी हम थके-हारे
प्यास मेरी ले गए हर, सिंन्धु खारे
राह जीवन की कठिन, काँटों भरी थी
काट दी दो-चार सुधियों के सहारे ।

सो गया मैं, हो थकन की नींद के वश
और मेरे स्वप्न में पलती रही तुम ।