हमें चलना चाहिए
पूरी पृथ्वी पर न सही
अपने देश की इस धरती पर
जो बहुत बड़ी है, बहुत फैली हुई
बर्फ़ के लुप्त पहाड़ होते और समुद्र की प्रागैतिहासिक उछाल के बीच।
चलना चाहिए
दरवेश की तरह नहीं
न पर्यटक की तरह
उत्तप्त आत्मा की तरह
सुनी-सुनाई जगहों
पवित्र स्थलों, बदहवास लोगों के बीच
रोग-शोक में डूबी जगहों
और अशांत टुकड़ों के पास।
मेरे हमदम, मेरे प्यारे
मेरे उजाड़ जगहों के साथियो
खो गए जंगलों और लुप्त पहाड़ों की तरह
जगह-जगह से अच्छे दिन बदलते जा रहे हैं।
सूरज सुबह उठने पर
रात डूबने पर आकाश
हम देखते हैं जैसा
काश ! बचा होता वह वैसा।