पता नहीं चलने वाले घर,
अब क्यों नहीं बनाते लोग।
बाँध के रस्सी खींच-खींच कर,
इधर उधर ले जाते लोग।
कभी आगरा कभी बाम्बे,
दिल्ली नहीं-नहीं घुमाते लोग।
एक जगह स्थिर घर क्यों हैं,
पहिया नहीं लगाते लोग।
पता नहीं क्यों कारों जैसे,
सड़कों पर ले जाते लोग।
अथवा मोटर रिक्शों जैसे
घर को नहीं चलाते लोग।
पता नहीं घर बैठे क्यों हैं,
बिल्कुल नहीं हिलाते लोग।
कुत्तॊं जैसे बाँध के पट्टा
कहीं नहीं टहलाते लोग। ,
कब से भूखे खड़े हुये घर,
खाना नहीं खिलाते लोग।
बिना वस्त्र के खड़े अभी तक,
चादर नहीं उड़ाते लोग।
एक दूसरे को आपस में,
कभी नहीं मिलवाते लोग।
मिल न सकें कभी घर से घर,
यही गणित बैठाते लोग।
ऊँच, नीच, कमजोर, बड़ों को
जब चाहा उलझाते लोग।
जाति, धर्म के नाम घरों को,
आपस में लड़वाते लोग।