चलो...
इन घटनाओं से
हम दूर बैठें कहीं चलकर
वहीँ ...फुर्सत से जहाँ
बतिया सकें हम-तुम अकेले
जहाँ होवें नहीं
दुनिया-हाट के ये ठगी मेले
जहाँ छूने से
तुम्हारी देह की
यह जुही महके खूब जी-भर
यहाँ सूरज रोज़ लाता है
वही गुमसुम अँधेरे
और दिन-भर वही भटकन
सीढ़ियों के वही फेरे
देवता भी यहाँ
नकली
और झूठे हैं मसीहे औ' दुआघर
सुनें चलकर वह कथा
जो पत्तियां हैं रोज़ कहतीं
जब हवाएँ उन्हें छूकर
नेह से भरकर उमगतीं
नदी-तट पर
सीपियों में गूँजते हैं
सुनो, अब भी ढाई आखर