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चल रहे हैं फिर भी लगता है खड़े हैं / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

चल रहे हैं फिर भी लगता है खड़े हैं
दरहक़ीक़त लोग दलदल में गड़े हैं

ख़ैर हो उस रास्ते की ख़ैर हो
हर क़दम पे मील के पत्थर गड़े हैं

तेज़ क़दमों की उम्मीदें न करो
क्या हवा है क्या हमारे फेफड़े हैं

चीखना भी दर्द से अपराध है
इस शहर के दोस्तो नियम कड़े हैं

जोड़ लो तक्सीम दो चाहे घटा दो
आदमी हम हैं कहाँ बस आँकड़े हैं