Last modified on 27 जुलाई 2013, at 17:56

चश्मा / भास्कर चौधुरी

चश्मा जो मैं पहन रहा हूँ
बरसों से वह गाँधी चश्मा नहीं है
पर कुछ-कुछ वैसा ही है गोल-गोल
काले मोटे फ्रेम का
इस बीच
मकान बदला
बदला नौकरी भी
सायकिल खरीदा
स्कूटर और फिर बाइक
खरीदा ज़मीन का टुकड़ा भी
बच्चे अब दो हैं
पर चश्मा वही है
गाँधी चश्मा नहीं है
पर कुछ-कुछ वैसा ही है