181.
होरि खेलिये मन संका लाज गँवाय।टेक।
गुरु प्रताप पट पेन्हिके, छिरिकाँ सहज सुगंध।
जूठ सकेलोँ संत के, अवर सबै जग धंध॥
भरि पिचकारी ज्ञान की, हरि-यश को रस लेहु।
परिहरि ओछे संग को, भाव भरे सो देहु॥
फँट भरे जत मूढ़ता, देहु अबीर उड़ाय।
डंफ दया की धरि जगत, जीतु निशान बजाय॥
फागुन को दिन जात है, बैठ कहाँ खेलवार।
धरनी मानुष देहरा, दर्लभ दूजी बार॥1॥
182.
जग-जीवन प्रान-अधार बार न लाइया।टेक।
बालपना वपुरा भला, जाहि न विरह स्वभाव।
योवनता जबते भयो, हिय सालै बिनु घाव॥
बिछुरन व्याधि घटै नहि, निसि दिन व्यापै मोहि।
वालमु बाल सनेहिया, क्यों बिसराओं तोंहि॥
लागत भवन भयावनो, भूलो भूख पियास।
निकट न आवै नींदरी, सुरति सनेही पास॥
चिन्ता मन प्रभु रावरी, कहिये कवनि उपाय।
धरनी धीरज ना रहे, दीजै दर्शन आय॥2॥
183.
मन खेलो विमल वसन्त प्यारे कन्स सोँ।
पाँच पचीसकि मंडली, साथ लिये हरषन्त।
खोलि किवारी कोठरी, घट पैठो एकन्त॥
छाती में वाती धरो, भवन करो उँजियार।
कमलासन कमलापती, जीवन-प्रान-अधार॥
गंग यमुन के भीतरै, चन्द सूर के बीच।
उरध अरध की सीध में, अमित अर्गजा कीच॥
बिनु पग निरत करो तहाँ बिनु कर दे दे तार।
बिनु नयनन छवि देखना, बिना श्रवन झंकार॥
सहज सुरंग रंग रचि रहो, हिलि मिलि एकै ठांव।
धरनी भेटो भावते, मे टो अपनो नांव॥3॥
184.
नारायण गोपाल गोवर्द्धन-धारी।टेक।
दानव दलन छलन वलि, संतन हितकारी। ब्रह्मा बालक वछ हरो, तेहि तुरत संवारी॥
खेलन मिसु जमुना धँसो, नाथो फनि-कारी। राखि लियो प्रह्लादको, द्रोपदि की सारी॥
ग्राह ग्रसत गजराज को, जिन लीन उबारी। मारो कंस विधंस किय, महिभार उतारी॥
धरनी तन मन वारने बलि बलि वलिहारी॥4॥
185.
कर्त्ता राम के नामते, अब ऋतु राज वषन्त।
....॥
आतम औ परमातमो, खेलत विविध बनाय।
संगहिँ संगम हो रहो, नेकु नहीँ विलगाय॥
जँह तँह भीतर बाहरे, दहु दिसि भौ उँजियार।
बहुविधि बाजन बाजि, अरुझ मरी झंकार॥
प्रेम अमिय पिचकारियाँ, वरषत सहज सुभाव।
....॥
अजर जरै मुक्ता झरै, सूझै वार न पार।
धरनी अति आनँद भवो,...॥5॥
186.
श्याम सनेही वश परो, सुफल फलो ऋतुराज।
जाति होत मिलि साथ सखनके, आवत हो वनवारि।
छँकि छेकाय धवाय धाय के, पकरि लियो परचारि॥
जैसे कृपन बड़ो धन पावै, मनही मन अनुमान।
कंधो मनि मन धर्म न मान्यो, पल पल प्रफुलित प्रान॥
भरि फागुन कहिँ जान न दैहोँ, संत मानि।
व्रज की खोरी व्रज वनितासँग, सगये सारँग-पानि॥
पूरन प्रेम नेम ग्वालिनको, क्या जाने संसार।
धरनी वरनि दशा द्वापर की, समुणे समुझन हार॥6॥