आज इतनी दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
वह तुम्हारा देश, शशि, वह है न क्या रवि का मुकुर ही?
शशि-सदृश आतुर, मुकुर जग का न क्या कविसुलभ उर भी?
सुलगता शीतल अनल से, शून्य के शशि-सा विधुर भी!
इसलिये आओ हृदय में, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
मैं नहीं शशि, दूर है शशि, व्यर्थ मन को शशि बताता!
कहाँ मैं वंचित सुधा से, कहाँ वह शशि--घर सुधा का!
धरा पर पड़ते न उसके पाँव--शशि? मैं भूलता था!
तुम धरा पर उतर कर भी दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
सुधा मुझसे दूर है, हे चाँदनी, पर मन मधुर है;
शशि नहीं हूँ, किन्तु फिर भी हृदय मेरा भी मुकुर है,
मुकुर भी ऐसा कि अतिशय चूर्ण--यह कविसुलभ उर है!
झाँक देखो रूप रंजित, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
तुम महीने में कभी दिन चार को आतीं, न सब दिन;
रहीं रातों दूर औ रीते रहे मेरे तृषित छिन,
मैं यहाँ बेबस खड़ा इन सींखचों को हूँ रहा गिन!
पास तो आओ, बताओ दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?
चाँदनी! सुन लो तुम्हीं सी है हमारी चाँदनी भी!
दूर भी है, सुन्दरी भी, क्रूर है वह चाँदनी भी!
तुम हृदय में पैठ पाओ तो दिखाऊँ चाँदनी भी!
पास है वह दूर से भी, दूर हो क्यों, चाँदनी?
रूप से भरपूर हो, पर क्रूर हो क्यों, चाँदनी?