औरत जब बच्ची थी
चाँद के अक्स को थाली में देख
रोटी समझ कर खाने को मचलती रही
बच्ची जब जवान हुई
चाँद को देख सँजोने लगी सपने
भावनाएँ मचलने लगीं
कभी चाँद को माथे का टीका बनाती
तो कभी चेहरे को देखती
कहीं दाग तो नहीं
चाँद जैसा साजन ढूँढती
साजन मिला
कभी वो साजन को चाँद बोलती
कभी साजन लड़की को चाँद-सा बोलता
लड़की जब माँ बनी
चाँद को चंदा मामा बताकर
बच्चे को लोरियाँ सुनाती
दुलारती चाँद-सा
बच्चे बड़े होते रहे
माँ औरत होने का एहसास भूलती गयी
सिर्फ माँ हो गयी
चाँद को देखना भूल सी गयी
कभी याद आता भी, झाँकती तो पाती
काली रातें
निगल गयी अजगर-सी
उसके होने को
निगल गयी हैं सारे सपने
चाँद-सी रातें।