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चांद: कोई गुप्तचर / योगेन्द्र दत्त शर्मा

फिर मुंडेरें फांद
सूने आंगनों में
झांकता है चांद!

हाशियों की चुप्पियों को तोड़
आया है न जाने यह कहां से
किन अंधेरों की सतह को फोड़

जो अचानक हिल उठी
जल से भरी
कमजोर, टूटी नांद
घर में झांकता है चांद!

हक इसे क्या है, किसी के
बंद कमरों में उझकने का
सघन पर्दे उठा, निर्लज्ज तकने का

किसी के निजी मसलों में
दखल देता, किसी की
खोह में या मांद
में क्यों झांकता है चांद?

गुप्तचर-सा यह
न जाने क्यों किया करता
किसी के गोपनों को
भंग करने का सदा आग्रह

इसकी चांदनी को
क्यों न दें हम बांध?
आखिर क्यों पड़ा पीछे हमारे
यह हठीला चांद!