चांदनी रात है--
किसी अबोध कुमारी के सरल नैनों-सी
अथाह भेद भरी गीली...
अलस वसन्त की अनुराग भरी गोद
खुली फैली है
मौन सुधियों के राजहंस दूर-दूर उड़े जाते हैं...
चांदनी रात का सुनसान
है फीका-फीका
गन्ध के भार से सन्त्रस्त-सी वातास
है उन्मत्त काटती चक्कर
रुद्ध पथभ्रष्ट और विक्षिप्त
वासना-सी अतृप्त...
कहीं पे दूर कभी रुक-रुक कर
किसी के प्यार भरे गीत के टूटे-से स्वर
भूल से जाग कर
मानो तभी सो जाते हैं ।
चांदनी रात है चुपचाप समर्पित
मोहित
अचल दिगन्त के आश्लेष में
सोई
खोई अबूझ स्वप्न में,
जैसे तुम ही कभी
चुपचाप अनायास
मेरी गोद में सो जाती हो...
चांदनी रात ओ !
(1946 बरुआसागर में रचित)