नहीं किसी के गए आज तक सब दिन एक समान
अरुण बाल रवि की छवि अनुपम, करुण साँझ अवसान
तिल-तिल जला गया जागती तल, प्रखर मध्याहन
रे! तमारि को तम क्यों घेरा कहाँ गई वह शान
जहाँ जेठ की धूप-वहीं फिर पावस की हरियाली
जहाँ शिशिर के शीत वहीं फिर मधुऋतु है मतवाली
त्रिविध समीर साँस भर ले लो, फिर निदाघ तूफान
अरी! ज़िदगी चार दिनों की क्यों सहती अनाय
दुश्मन गर मिट सका नहीं तो, खुद न मिटी क्यों हाय
लोहे का गढ़ ढहते देखा तुम क्या हो पहचान
रोगी हो मरने से अच्छा है हँस-हँस जान गवाना
समर भूमि है सजी सामने वीरो बली-बली जाना
कायर बन सहते रह जाओ क्यों भारी अपमान