Last modified on 18 मई 2011, at 19:00

चार दिन की चांदनी / रेशमा हिंगोरानी

कोई मुद्दत के बाद
दिल के तार
छेड़ गया!
फिर वही नग़मे फ़ज़ा<ref>वातावरण</ref> में हैं,
गुनगुनाने लगे,
मैं उड़ रही,
ज़मीनों-आसमाँ<ref>ज़मीन और आसमाँ</ref> के बीच कहीं,
थिरक रहे हैं पाँव,
बोलने लगे घुँघरू!
न कोई फ़िक्र,
और न कोई ग़म की परछाईं,
एक मस्ती का है आलम<ref>हालत</ref>,
और इक ख़याल तेरा!
अब कोई ख़ौफ<ref>डर</ref> नहीं,
चाँदनी अगर मेरी,
है चार दिन की,
तो आ जाए रात अँधियारी...
मैं हूँ वाक़िफ सियाह<ref>अँधेरी / काली</ref> रात की हकीक़त से,
उम्र उसकी तो,
चार दिन भी नहीं होती है!

शब्दार्थ
<references/>