जली हुई रोटी है
दूसरी तरफ़ कच्ची
उफन गई चाय है
बच रही थोड़ी-सी
भगोने में
बची हुई मुट्ठी भर धूप हो जैसे
उतरती गहराती शाम में
बजती है
ठुमरी की तिहाई की तरह
बार-बार
पलट आती है
मुखड़े पर
पता नहीं कौन
रोज़ दरवाज़े खटखटा जाता है
और आँखों से नमक झरता है
अपनी देह के बाहर
छूट जाती है कभी
और कभी
उम्र से आगे निकल जाती है
मुड़ती हुई नदी के भीतर बहती है
एक और नदी
पत्थर का ताप अपने भीतर थामे
रात होते ही
अपने पंख तहा
रख देती है सिरहाने
और निहारती है देर तक
उन पंखों को...
चालीस पार की औरत!