Last modified on 3 दिसम्बर 2008, at 01:13

चाहत-1 / साधना सिन्हा

झुकी देह–यष्टिका
बूढ़ा हुआ तन

चाहत
बालक सी
फिर भी
मुस्काती

सुबह की कोमल गरम
किरण-सी
छरहरी
पेड़ों के झुरमुट से
झाँकती
आकर
मुझ में बस जाती

चाहत
तुम क्यों न बूढ़ी हुईं ?
आकर मेरे आंगन में
शिशु बना,
खिलौना थमा
मुझ से
खिलवाड़ करती हो !