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चाहे अबकी बार / माधव कौशिक

चाहे अबकी बार लहू से ज़्यादा महंगा पानी है
हमने भी ज़िन्दा रहने की हर हालत में ठानी है ।

रोशन सड़कों का सन्नाटा चीख़-चीख़ कर कहता है
अंधी गलियों की सच्चाई तुमको बाहर लानी है ।

जान बूझकर अपने हाथों जिसे लगाकर भूल गए
जंगल की वह आग कभी तो अपने घर तक आनी है ।

संघर्षों की ऊबड़-खाबड़ धरती सिर्फ़ बहाना है
उसका कोई क्या कर लेगा जिसने ठोकर खानी है

सबके चेहरे, सबकी यादें, सबके नाम मिटाकर भी
मन में किसी अधूरेपन की तड़प शेष रह जानी है ।