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चाहे कुछ भी / सुनीता जैन

चाहे कुछ भी
हो जाए कल
बहने देना
शीतल, निर्मल
शब्दों का
जिह्वा पर
जल
यों तो आया
जो भी-
ले गय, सका जो
हाथों में भर,
भर

अब इस ढलती आयु में
डर-सा लगता है
दे न पाऊँ शायद
इतना और ऐसे,
मैं कल!
फिर भी
भीतर-भीतर
बहती तो होगी
सलिला यह,
अक्षर
अक्षर

शब्दों में ढल,
शब्दों में
ढल!