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चिंता / अमरेन्द्र

गहन रात में प्रेत विचरता, ऐसा ही आभास
या फिर मध्य निशा में सिसकी कानों से टकराए
स्वप्न भयावह जमी हुई आँखों में आए-जाए
घोर अमावस घिरती आए, जंगल हो जब पास ।

आँखों पर यह धूल जेठ की, सूरज सर के आगे
फागुन की डोली पर लचलच अर्थी सजी हुई है
आग वहीं पर उठी हुई है, जिस कोठरी में घी है
नींद लगी है, सिरहाने में लेकिन योगिनी जागे ।

यात्रा पर हो दिख जाए ज्यों बुझी हुई-सी आग
लड़े बिल्लियाँ, रोए; खाली पथ पर बिखरी रूई
और अचानक वायु उठे फिर चुभे पाँवों में सूई
जीवन की हर साँस-साँस पर मृत्यु रही हैं जाग ।

नहीं जानतीµशंख, मृतिका, ताम्बुल, क्या औषध है
कर्दम टीका पड़े काठ पर; आगे गज का वध है ।