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चिट्ठियाँ / प्राणेश कुमार

कितनी कितनी ख़ुशी
कितनी कितनी पीड़ा
इंतजार और प्यार लिए
आती थी चिट्ठी ।

दूर देश से
लिखता था राम-राम
अपने बूढ़े पिता को
बिहारी मजदूर
और राम -राम का सम्बल लिए
गुजार देता था वृद्ध कई- कई साल !
झुकी कमर
धुंधली नज़र लिए
दूर पगडंडियों को देखता था
देखता था
जतरा - त्यौहार में
लोगों का आना - जाना ।
फिर सैकड़ों लू भरी
तपती दुपहरी गुजरती थी
सैकड़ों जाड़े की उदास शाम
बीतती थी
लेकिन बेटा
नहीं लिखता था राम-राम
नहीं लिखता था कुछ भी !

पाला पड़े पौधे की तरह
गलने लगता था
बूढ़ा बाप
गंदली पोटली से निकालता था
पुराने पत्र
छूता था
महसूस करता था
अपने बेटे की प्यारी आँखें
और चिट्ठियों के इंतज़ार में
अंधी आंखों से निहारता रहता था
पगडंडियों को
फिर भी
चिट्ठियाँ नहीं आतीं थीं
क्योंकि चिट्ठियों में ही बुने होते थे
सम्बंधों के सूत्र !