Last modified on 11 जुलाई 2011, at 10:01

चिड़चिड़ी हवाएँ / कुमार रवींद्र

दिया-बुझे
रोज़ रात आती हैं
     चिड़चिड़ी हवाएँ
 
आँगन के पीपल पर बैठ
वे झगड़ती हैं
सोए दरवाज़े से
बार-बार लड़ती हैं
 
उठा-पटक करती हैं
घर भर में
        ये सिड़ी हवाएँ
 
काँपते कैलेण्डर के
दिन सभी बदलती हैं
पिछली तारीख़ों पर
बैठ नहीं टलती हैं
 
कुदक-कुदक फिरती हैं
कमरे में
        ये चिड़ी हवाएँ
 
अँधी हैं - बहरी हैं
शोर बहुत करती हैं
नींद से जगाती हैं
साँस में उतरती हैं
 
पर दिन के आते ही
हो जाती हैं
            तिड़ी हवाएँ