एलबम का दूसरा पन्ना पलटा
याद आया दादी का गुस्सा
और चश्मे से झाँकतीं
दादी की बड़ी-बड़ी आँखें
लड़कियों का आराम से लेटना
या किताब लेकर बैठना
उनको नहीं भाता था
यह सब देखकर
उन्हेँ बहुत क्रोध आता था !
पंखा बंद ताकि हम
पसीने में नहाएँ
बिजली बंद ताकि हम
किताब में न झाँक पाएँ !
उस समय
उनके कठोर व्यवहार से
असहनीय पीड़ा होती !
टूटे पेड़-सी असहाय मैं
झर-झर बहते आँसुओं से ही
मन की पीड़ा धो लेती !
पर आज सोचती हूँ कि उस समय
दादी की कठोर वाणी
यदि न सही होती तो
आज नहीं मिल पाता इतना पुख्ता आधार
कि ससुराल आकर झेल पाती आपदाओं को
दादी नहीं हैं
पर उनकी उपस्थिति आज भी भिगोती है तन-मन
उनकी गुर-गंभीर वाणी गूँजती है घर-आँगन में
मन करता है प्रणाम बारंबार
उनके उसूलों को
क्योंकि बनाया है उन्होंने
मोम-से तन-मन को फौलादी
कि चल सकूँ काँटों पर भी बिना डगमगाए
ढो सकूँ पत्थर-रिश्तों को मज़बूती से
और जीवन-पथ पर
अडिग खड़े होकर
यदि लड़ना पड़े तो लड़ सकूँ
लड़ाई अपनी अस्मिता की !