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चितेरा / विमल राजस्थानी

वन विशाल था, प्रकृति-नटी का सजा हुआ था डेरा
चारों ओर हरे वृक्षों का पड़ा हुआ था घेरा
झरने कल-कल करते, नदियाँ बहती थीं मदमाती
इसी स्वर्ग के मध्य वास करता था एक चितेरा

दुनिया से सुदूर, वन में वह रहता था एकाकी
उर की व्यथा शान्त करता था निरख-निरख वन-झाँकी
घाव कलेजे के धोता पी-पी आँसू की बूँदें
यों ही कभी किया करता था तर वसुधा की छाती

सजी हुई थी कुटिया उसकी तिनकों के सम्बल से
ढकी हुई थी छत कुटिया की सुरभित नव-पल्लव से
चारों ओर कुटी के निखरी थी पुष्पों की क्यारी
लदा हुआ था कन-कन कुटिया का वन वैभव से

था अति नरम बिछौना जिसमें हरे-हरे पत्तों का
दर्द दबा देता था जो दिल पर के आघातों का
किन्तु अकेला पा अपने को पल्लव की शय्या पर
ध्यान तुरत हो आता पिछले जीवन की बातों का


ज्यों ही अम्बर से बरसाने लगता चंदा चाँदी
हो जाती आरम्भ दृगों से उसके बूँदा-बाँदी
धर लेती साकार रूप छाया की धुँधली रेखा
अटपट स्वर में कह उठता कुछ यों ही विकल प्रमादी

उसको देख ज्ञात होता था-था वह कभी सुखी भी
हुआ अभी ही कुछ दिवसों से व्याकुल और दुखी भी
उसका कोमल मन कुचला था शायद निष्ठुर जग ने
काँटों से बिंध गये पाँव थे मानो जीवन-मग में

नदी-किनारे बैठ शिला पर कभी प्रफुल्लित होता
कभी डूब चिन्ता-सागर में तन-मन की सुधि खोता
हँसता फिर वह कभी खिलखिला कर पागल की पाईं
कभी याद कर खूब किसी की फूट-फूट कर रोता

जंगल में मंगल था, कुटिया उसके लिए महल थी
जीवन की बाधाएँ सारी उसके लिए सरल थीं
किन्तु, एक थी बात-कसकमय उसका कोमल मन था
यों तो उसके लिए दुःख ही उसका जीवन-धन था

अपनी पीड़ा की क्रीड़ा में रत वह मस्त-मगन था
वैभव औ’ ऐश्वर्य विश्व का बस, केवल कानन था
उसने कीमत खूब हृदय में थी ‘आशा’ की आँकी
अंकित रहती थी नयनों में ‘आशा’ ही की झाँकी

उजड़ चुकी थी दुनिया उसके कोमल दलित हृदय की
सदा तड़प उठता कह- ‘आशा’! प्रतिमा प्रेम-प्रणय की
इसी तरह सुख-दुख-सागर में निशि-वासर बहता था
आशा-हीन बना रह कर भी ‘आशा’ ही कहता था

पत्ती-पत्ती पर ‘आशा’ थी, कली-कली में ‘आशा’
कुंज-कुंज में ‘आशा’, वन की वीथि-वीथि में ‘आशा’
सरिता की हर लहर-लहर पर थिरक रही थी ‘आशा’
‘वनमाली’ के रोम-रोम में झमक रही थी ‘आशा’

‘आशा’ मय ही लगता था उसको कन-कन कानन का
‘आशा’-स्मृति-रस से भीना था छन-छन जीवन का
पापी जग के लांछन के बोलों से बिंधे हृदय में
चित्र शान्ति देता था कुछ उसके छवि-चंद्रानन का