तुम्हारे विक्षिप्त हृदय का, मैं, हूँ एक मात्र भग्नांश
स्पंदन में मेरे, अभिगुंजित क्षताक्त कल्पित स्वन
मेरे विस्तृत आयुकाल का, मैं हूँ मात्र एक क्षणांश
तुम्हारे अधरों में है, चिरजीवित मृदुल स्वप्न ध्वन
मैं हूँ महार्णव के वक्ष पर दिग्भ्रांत तरंगित प्रवाह
हूँ, मैं उद्विग्न निम्नगा की उद्वेलित उर्मिल मौनता
हे चित्रांगदा! मैं आग्नेय शिला का तीव्र अंतर्दाह
हूँ इस विदीर्ण मन की अश्रुपूर्ण सिक्त निर्जनता
दसदिशाओं का, देखो! विवर्ण रूप, हो रही शुष्क;
ईरा की शीतल मृदलता विछोह में है शोकग्रस्त
तप्त वायु सम हो रहा दग्ध-विदग्ध, यह धनुष्क
हे चित्रा! नियति के नियमों में प्रणय है परित्रस्त
प्रिये! है देहातीत यह आत्मिक परिरंभ, है दैवीय
संघर्षरत जीवन मेरा, है अनावृत पीड़ा-मानवीय।
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