चिन्ता दिवारॅ छिकै,
यमराजॅ के पियारॅ छिकै।
जिनगी के कागज जकसाँ चाटै छै,
कानबॅ नै सुनाबछै, मगर छाती काटै छै,
बाहर सें किताब, भीतर सें अब माँटी,
जेना मोटका गाछी में समूचा धोवर
वै धोधरी में अजगर,
हाथी केॅ काँड़ी, भैंसी केॅ भजहा,
वा डुबला नावॅ के मलहा।
आँख खुलकँ रहै छै,
मगर दुनियाँ नै झलकै छै।
जागल्हौ पर आवाज अनसुनलॅ जाय छै।
जें आपनॅ रूप नै देखाबै छै,
सुबोल की कुबोल नै सुनाबै छै।
एकरा गंगा-जल सें नै दहाब पारॅ,
देहॅ सें झाड़ी केॅ आगनी में मै झोंक पारॅ
ताड़ी-सराबॅ के समुन्दर में नै डुबायेॅ पारॅ,
गाँजा-भाँग में नै भुलावेॅ पारॅ।
ई जिनगी के खांेक छिकै,
यात्रा के डोक छिकै।